Thursday, September 17, 2009


एक परिचित जो यहाँ पिछले जनम में खो गया थाइस जनम में वह मिला उसकी कहानी लिख रही हूँ।वह समंदर की कथाओं सारहा अब तक अधूरा।गीत है जिसको न कर पाईसमय के साथ पूरा।यह बहुत व्याकुल कि उसका कंठ सूखा जा रहाइसलिए बनकर नदी मैं मीत, पानी लिख रही हूँ।मोतियों-सा वह बिखरता हैकभी जैसे कि पारा।वह किसी जलयान का है मीतया कोई किनारा।वह मुझे जिस हाट में यूं ही अचानक मिल गया थाकागज़ों पर भेट के क्षण की निशानी लिख रही हूँ।द्वन्द्व से संवेदना की रोज़वह करता सगाई।वह स्वयं को दे रहा हैइस तरह नूतन बधाई।अनवरत चलते हुए या सीढ़ियां चढ़ते हुए भीमैं उसी के नाम पर सारी रवानी लिख रही हूँ।एक मीठे दर्द-सा कुछइस तरह भाने लगा है।वह हृदय की गूंज थाअब ओंठ पर आने लगा है।वह अकिंचन किंतु, उसके दान की शैली अलग हैइसलिए अपने सृजन की राजधानी लिख रही हूँ।

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