Saturday, September 19, 2009


बन्द आँखें
आँखें खोले,दौड़ती रही मैंसूखी, सख्त, तपती ज़मीन पर।काँटे चुभते रहे पाँव छिलते रहे।आकाश की ओर दोनों बाहें उठा कहती रही,मेघा, पानी दे।
अंधेरे में ढूँढ़ती रहीखुद को,डर-डर कर छूती रही हर सुख को।दोनों बाहें उठासूरज से माँगती रही,मुझे रोशनी दे।
तपती रेत के बवंडर मेंझुलसती रही,पुकारती रहीकोई मुझे हरियाली दे,छाया दे।
कुछ नहीं मिलान जल भरान सूरज उगान ही कोई पेड़ दिखा।
फिर मैंनेआँखें बन्द कर लींऔर नंगे पाँव चलने लगी।अचानक,मेरे अन्दर सूरज उग आया।फूल ही फूल बिछ गएमेरे पाँवों के नीचेकाँटे, कहीं गुम हो गए।
ठंडी फुहार ने जगाया मुझेदेखा,लगातार हो रही थी बारिशमेरी ही औंधी पड़ी थी गागर।
भीग गई आँखें शुकराने में।जान गई,तुम मुझसेबहुत-बहुत-बहुत प्यार करते हो।

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