Saturday, September 19, 2009

आभार
आज फिर तुम मेरे सामने आएमैंने निकट से देखातुम्हारा भव्य रूप।तुम्हारी ऊँचाई को नापतीमेरी ग्रीवा बिल्कुल पीछे मुड़ गईफिर भी, मैं गगन में घुल-मिल गईतुम्हारी अपनी इकाई को खोजती रहीतुम्हारे चट्टानी वक्ष पर उभरतीरेखाओं को देख कर सिहरती रहीचारों तरफ़ से घेरतातुम्हारे आधिपत्य का दायरामुझे आश्वासन देता रहाधूप-छाँव कीइस रंगमंचीय रोशनी में तुम मुझेअपने बदलते रंगों सेसम्मोहित करते रहे।
सूरज ने कुछ इस तरह घुमा कररोशनी फेंकी तुम परकि बर्फ़ से ढँकातुम्हारा शिखरचकाचौंध कर गया।मैं बस टकटकी लगा करदेखती रह गई।
फिर जैसे,देखना काफ़ी नहीं थाआँखों का क्या भरोसा?मन का क्या विश्वास?मैं छूना चाहती थी तुम्हेंदुस्साहस कर बैठी मैंऔर मैंने बढ़ा दियातुम्हारी ओरअपना हाथ।
मेरी क्षुद्रता,हवा में ही काँप कर रह गयामेरे हाथ।कहाँ तुमभव्य, विशाल, विराटऔर कहाँ मैंतुम्हारे ही अस्तित्व का एक भाग।
मैं अपनी तुच्छता को समेटेअपने छोटेपन के एहसास सेसंकुचितबैठी थी घुटनों पर सिर टिकाएलज्जित कि कैसे मैंने की हिमाकतसोचने की भीकि, मैं तुम्हें छू सकती हूँनिर्णय दे सकती हूँतुम्हारी स्थूलता का,तुम्हारे होने न होने का,आँकने का प्रमाण?लघु बुद्धि का मान?लज्जित, बहुत लज्जित थी मैं।
तभीएक छोटी-सीबर्फ़ की एक चिंदीमेरे माथे पर आकर गिरीजैसे मुझे मनाता, सहलानातुम्हारा शीतल चुंबन।मैंने चिबुक उठा कर देखातुम्हारी प्यार भरी आँखों मेंमुसकुरातातुम्हारी सक्षमता का भावहवाओं की बाहों से उठा करतुमने मेरे माथे पररख दिया था प्यार।
चारों तरफ़ हल्की-हल्कीबर्फ़ के फाहे गिरने लगेमैं तो तुम तक नहीं पहुँच सकीपर तुम मुझ तक पहुँचने लगेआभार,बहुत-बहुत आभार।

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