Saturday, September 19, 2009

सूर्यास्त
आज सागर-मध्य खड़ी हो देखा,न सागर की कोई सीमा,न आकाश की कोई सीमा।फिर,क्षितिज की सेज पर, शरमा रही थी जो,सूरज की उस सुनहली दुल्हन ने,अपना चेहरा छिपा लियासिन्दूरी आँचल में।धीमें-धीमें विलीन हो गईवह सागर की गोदी में।
इतना समर्पण अच्छा नहीं,क्यों विलय करती होअपने को?मैंने उस सूरज की लालिमा से पूछा।
मुस्कुरा कर उसने कहा,विलय कहाँ करती हूँ?सागर को अपने में भरती हूँ।यह समर्पण भी एक सुख है।तुम भी, डूब कर तो देखोशर्त यह हैतुम्हारे भी प्रीतम मेंगरिमा हो उतनी,मेरे सागर में है जितनी।

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