Sunday, September 20, 2009


रोशनी इस रोशनी मेंथोड़ा सा हिस्सा उसका भी हैजिसने चाक पर गीली मिट्टी रख करआकार दिया है इस दीपक काइस रोशनी में थोड़ा सा हिस्सा उसका भी हैजिसने उगाया है कपासतुम्हारी बाती के लिएथोड़ा सा हिस्सा उसका भीजिसके पसीने से बना है तेलइस रोशनी मेंथोड़ा सा हिस्साउस अँधेरे का भी हैजो दिये के नीचेपसरा है चुपचाप।

इन बहारों से कोई, पूछे ये जाते हैं कहाँ।रहते हैं किस ठौर, जब होते नहीं इनके निशाँ।तितलियाँ उड़-उड़ बतातीं, फूल को खिलने का ढंग।भ्रमर उसके उर में भरता, तान देकर सूर्ख़ रंग।नई-नई कोपलों से, ढँक लिया तरु तन-बदन।पवन बाँटे गंध मादक, प्रकृति करती सबको दंग।कौन आकर कान में, कह जाता बहारों से मिलो हैं क्षणिक, पर कितने रंगों से भरे इनके रवाँ। रहते हैं किस ठौर. . .पत्थरों से आज पूछो, क्या नदी से उनका रिश्ता।साथ उठकर चल दिए, बन सलिल का एक हिस्सा।बिखर जाएँगें तटों पर, बालुका-सा ढेर बनकरजड रहे जडवत बनें, मत करें चेतन का पीछा।बात दुनियावी समझ में, क्यों नहीं आती सभी को छोटी-छोटी ज़िंदगी, पर घात सदियों के यहाँ। रहते हैं किस ठौर,,बेबी''

आसमाँ पे बिखरा साँझ का काजलहवा में लहराया सुरमई आँचलखामोशी में डूबी है तनहाईमदहोश साँझ और भी गहराईदुनिया से बेगाना ये मिलने का अंदाज़तुम और मैं, और दिलों की आवाज़थके-माँदे परिंदों के गीतउन्हें मिले हैं मन के मीतगाते हैं पेड़ चहकती है वादियाँमहकती है सांसे तेरे प्यार के अहसास से''हाथों में लेकर तुम्हारा नर्म हाथजी चाहता है, चलूँ उम्र भर साथ''......

Saturday, September 19, 2009


प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,मार्ग वह हमें दिखाती है।प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।नदी कहती है' बहो, बहोजहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,पूर्णता जीवन की पाओ।विश्व गति ही तो जीवन है,अगति तो मृत्यु कहाती है।प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।शैल कहतें है, शिखर बनो,उठो ऊँचे, तुम खूब तनो।ठोस आधार तुम्हारा हो,विशिष्टिकरण सहारा हो।रहो तुम सदा उर्ध्वगामी,उर्ध्वता पूर्ण बनाती है।प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।वृक्ष कहते हैं खूब फलो,दान के पथ पर सदा चलो।सभी को दो शीतल छाया,पुण्य है सदा काम आया।विनय से सिद्धि सुशोभित है,अकड़ किसकी टिक पाती है।प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

वेदों के मंत्र हैं
हम न मौसमी बादलहम न घटा बरसातीपानी की हम नहीं लकीर,वेदों के मंत्र हैं, ऋचाएँ हैं।
हवा हैं गगन हैं हम,क्षिति हैं, जल,अग्नि हैं दिशाओं में,हम तो बस हम ही हैं,हमको मत ढूँढ़ो उपमाओं में,शिलालेख लिखते हम,हम नहीं लकीर के फकीरजीवन के भाष्य हैं, कथाएँ हैं।
वाणी के वरद-पुत्र,वागर्थी अभियोजक हैं अनन्य,प्रस्थापित प्रांजल प्रतिमाएँ हैं,शिव हैं कल्याणमयी,विधि के वरदान घन्य,विष्णु की विराट भंगिमाएँ हैं,खुशियों के मेले हमयायावर घूमते फकीरआदमक़द विश्व की व्यथाएँ हैं।
सूर्यास्त
आज सागर-मध्य खड़ी हो देखा,न सागर की कोई सीमा,न आकाश की कोई सीमा।फिर,क्षितिज की सेज पर, शरमा रही थी जो,सूरज की उस सुनहली दुल्हन ने,अपना चेहरा छिपा लियासिन्दूरी आँचल में।धीमें-धीमें विलीन हो गईवह सागर की गोदी में।
इतना समर्पण अच्छा नहीं,क्यों विलय करती होअपने को?मैंने उस सूरज की लालिमा से पूछा।
मुस्कुरा कर उसने कहा,विलय कहाँ करती हूँ?सागर को अपने में भरती हूँ।यह समर्पण भी एक सुख है।तुम भी, डूब कर तो देखोशर्त यह हैतुम्हारे भी प्रीतम मेंगरिमा हो उतनी,मेरे सागर में है जितनी।

बन्द आँखें
आँखें खोले,दौड़ती रही मैंसूखी, सख्त, तपती ज़मीन पर।काँटे चुभते रहे पाँव छिलते रहे।आकाश की ओर दोनों बाहें उठा कहती रही,मेघा, पानी दे।
अंधेरे में ढूँढ़ती रहीखुद को,डर-डर कर छूती रही हर सुख को।दोनों बाहें उठासूरज से माँगती रही,मुझे रोशनी दे।
तपती रेत के बवंडर मेंझुलसती रही,पुकारती रहीकोई मुझे हरियाली दे,छाया दे।
कुछ नहीं मिलान जल भरान सूरज उगान ही कोई पेड़ दिखा।
फिर मैंनेआँखें बन्द कर लींऔर नंगे पाँव चलने लगी।अचानक,मेरे अन्दर सूरज उग आया।फूल ही फूल बिछ गएमेरे पाँवों के नीचेकाँटे, कहीं गुम हो गए।
ठंडी फुहार ने जगाया मुझेदेखा,लगातार हो रही थी बारिशमेरी ही औंधी पड़ी थी गागर।
भीग गई आँखें शुकराने में।जान गई,तुम मुझसेबहुत-बहुत-बहुत प्यार करते हो।