Sunday, September 20, 2009


रोशनी इस रोशनी मेंथोड़ा सा हिस्सा उसका भी हैजिसने चाक पर गीली मिट्टी रख करआकार दिया है इस दीपक काइस रोशनी में थोड़ा सा हिस्सा उसका भी हैजिसने उगाया है कपासतुम्हारी बाती के लिएथोड़ा सा हिस्सा उसका भीजिसके पसीने से बना है तेलइस रोशनी मेंथोड़ा सा हिस्साउस अँधेरे का भी हैजो दिये के नीचेपसरा है चुपचाप।

इन बहारों से कोई, पूछे ये जाते हैं कहाँ।रहते हैं किस ठौर, जब होते नहीं इनके निशाँ।तितलियाँ उड़-उड़ बतातीं, फूल को खिलने का ढंग।भ्रमर उसके उर में भरता, तान देकर सूर्ख़ रंग।नई-नई कोपलों से, ढँक लिया तरु तन-बदन।पवन बाँटे गंध मादक, प्रकृति करती सबको दंग।कौन आकर कान में, कह जाता बहारों से मिलो हैं क्षणिक, पर कितने रंगों से भरे इनके रवाँ। रहते हैं किस ठौर. . .पत्थरों से आज पूछो, क्या नदी से उनका रिश्ता।साथ उठकर चल दिए, बन सलिल का एक हिस्सा।बिखर जाएँगें तटों पर, बालुका-सा ढेर बनकरजड रहे जडवत बनें, मत करें चेतन का पीछा।बात दुनियावी समझ में, क्यों नहीं आती सभी को छोटी-छोटी ज़िंदगी, पर घात सदियों के यहाँ। रहते हैं किस ठौर,,बेबी''

आसमाँ पे बिखरा साँझ का काजलहवा में लहराया सुरमई आँचलखामोशी में डूबी है तनहाईमदहोश साँझ और भी गहराईदुनिया से बेगाना ये मिलने का अंदाज़तुम और मैं, और दिलों की आवाज़थके-माँदे परिंदों के गीतउन्हें मिले हैं मन के मीतगाते हैं पेड़ चहकती है वादियाँमहकती है सांसे तेरे प्यार के अहसास से''हाथों में लेकर तुम्हारा नर्म हाथजी चाहता है, चलूँ उम्र भर साथ''......

Saturday, September 19, 2009


प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है,मार्ग वह हमें दिखाती है।प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।नदी कहती है' बहो, बहोजहाँ हो, पड़े न वहाँ रहो।जहाँ गंतव्य, वहाँ जाओ,पूर्णता जीवन की पाओ।विश्व गति ही तो जीवन है,अगति तो मृत्यु कहाती है।प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।शैल कहतें है, शिखर बनो,उठो ऊँचे, तुम खूब तनो।ठोस आधार तुम्हारा हो,विशिष्टिकरण सहारा हो।रहो तुम सदा उर्ध्वगामी,उर्ध्वता पूर्ण बनाती है।प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।वृक्ष कहते हैं खूब फलो,दान के पथ पर सदा चलो।सभी को दो शीतल छाया,पुण्य है सदा काम आया।विनय से सिद्धि सुशोभित है,अकड़ किसकी टिक पाती है।प्रकृति कुछ पाठ पढ़ाती है।

वेदों के मंत्र हैं
हम न मौसमी बादलहम न घटा बरसातीपानी की हम नहीं लकीर,वेदों के मंत्र हैं, ऋचाएँ हैं।
हवा हैं गगन हैं हम,क्षिति हैं, जल,अग्नि हैं दिशाओं में,हम तो बस हम ही हैं,हमको मत ढूँढ़ो उपमाओं में,शिलालेख लिखते हम,हम नहीं लकीर के फकीरजीवन के भाष्य हैं, कथाएँ हैं।
वाणी के वरद-पुत्र,वागर्थी अभियोजक हैं अनन्य,प्रस्थापित प्रांजल प्रतिमाएँ हैं,शिव हैं कल्याणमयी,विधि के वरदान घन्य,विष्णु की विराट भंगिमाएँ हैं,खुशियों के मेले हमयायावर घूमते फकीरआदमक़द विश्व की व्यथाएँ हैं।
सूर्यास्त
आज सागर-मध्य खड़ी हो देखा,न सागर की कोई सीमा,न आकाश की कोई सीमा।फिर,क्षितिज की सेज पर, शरमा रही थी जो,सूरज की उस सुनहली दुल्हन ने,अपना चेहरा छिपा लियासिन्दूरी आँचल में।धीमें-धीमें विलीन हो गईवह सागर की गोदी में।
इतना समर्पण अच्छा नहीं,क्यों विलय करती होअपने को?मैंने उस सूरज की लालिमा से पूछा।
मुस्कुरा कर उसने कहा,विलय कहाँ करती हूँ?सागर को अपने में भरती हूँ।यह समर्पण भी एक सुख है।तुम भी, डूब कर तो देखोशर्त यह हैतुम्हारे भी प्रीतम मेंगरिमा हो उतनी,मेरे सागर में है जितनी।

बन्द आँखें
आँखें खोले,दौड़ती रही मैंसूखी, सख्त, तपती ज़मीन पर।काँटे चुभते रहे पाँव छिलते रहे।आकाश की ओर दोनों बाहें उठा कहती रही,मेघा, पानी दे।
अंधेरे में ढूँढ़ती रहीखुद को,डर-डर कर छूती रही हर सुख को।दोनों बाहें उठासूरज से माँगती रही,मुझे रोशनी दे।
तपती रेत के बवंडर मेंझुलसती रही,पुकारती रहीकोई मुझे हरियाली दे,छाया दे।
कुछ नहीं मिलान जल भरान सूरज उगान ही कोई पेड़ दिखा।
फिर मैंनेआँखें बन्द कर लींऔर नंगे पाँव चलने लगी।अचानक,मेरे अन्दर सूरज उग आया।फूल ही फूल बिछ गएमेरे पाँवों के नीचेकाँटे, कहीं गुम हो गए।
ठंडी फुहार ने जगाया मुझेदेखा,लगातार हो रही थी बारिशमेरी ही औंधी पड़ी थी गागर।
भीग गई आँखें शुकराने में।जान गई,तुम मुझसेबहुत-बहुत-बहुत प्यार करते हो।
आभार
आज फिर तुम मेरे सामने आएमैंने निकट से देखातुम्हारा भव्य रूप।तुम्हारी ऊँचाई को नापतीमेरी ग्रीवा बिल्कुल पीछे मुड़ गईफिर भी, मैं गगन में घुल-मिल गईतुम्हारी अपनी इकाई को खोजती रहीतुम्हारे चट्टानी वक्ष पर उभरतीरेखाओं को देख कर सिहरती रहीचारों तरफ़ से घेरतातुम्हारे आधिपत्य का दायरामुझे आश्वासन देता रहाधूप-छाँव कीइस रंगमंचीय रोशनी में तुम मुझेअपने बदलते रंगों सेसम्मोहित करते रहे।
सूरज ने कुछ इस तरह घुमा कररोशनी फेंकी तुम परकि बर्फ़ से ढँकातुम्हारा शिखरचकाचौंध कर गया।मैं बस टकटकी लगा करदेखती रह गई।
फिर जैसे,देखना काफ़ी नहीं थाआँखों का क्या भरोसा?मन का क्या विश्वास?मैं छूना चाहती थी तुम्हेंदुस्साहस कर बैठी मैंऔर मैंने बढ़ा दियातुम्हारी ओरअपना हाथ।
मेरी क्षुद्रता,हवा में ही काँप कर रह गयामेरे हाथ।कहाँ तुमभव्य, विशाल, विराटऔर कहाँ मैंतुम्हारे ही अस्तित्व का एक भाग।
मैं अपनी तुच्छता को समेटेअपने छोटेपन के एहसास सेसंकुचितबैठी थी घुटनों पर सिर टिकाएलज्जित कि कैसे मैंने की हिमाकतसोचने की भीकि, मैं तुम्हें छू सकती हूँनिर्णय दे सकती हूँतुम्हारी स्थूलता का,तुम्हारे होने न होने का,आँकने का प्रमाण?लघु बुद्धि का मान?लज्जित, बहुत लज्जित थी मैं।
तभीएक छोटी-सीबर्फ़ की एक चिंदीमेरे माथे पर आकर गिरीजैसे मुझे मनाता, सहलानातुम्हारा शीतल चुंबन।मैंने चिबुक उठा कर देखातुम्हारी प्यार भरी आँखों मेंमुसकुरातातुम्हारी सक्षमता का भावहवाओं की बाहों से उठा करतुमने मेरे माथे पररख दिया था प्यार।
चारों तरफ़ हल्की-हल्कीबर्फ़ के फाहे गिरने लगेमैं तो तुम तक नहीं पहुँच सकीपर तुम मुझ तक पहुँचने लगेआभार,बहुत-बहुत आभार।

Thursday, September 17, 2009


जो कष्ट दूसरे के हैं ओढ़ लिया करते''
जो कष्ट दूसरे के हैं ओढ़ लिया करतेवह कष्ट नहीं होता, आनन्द कहलाता है,कहने वाले कहते, वह पीड़ा भुगत रहाउस पीड़ा में भी वह मिठास ही पाता है।हम व्यक्ति राष्ट्र या फिर समाज के दुख बाँटे,अनुभूति नहीं फिर दुख की कोई भी करता''वह यही गर्व करता, मैं नहीं अकेली हूँ ...वह तो सुख का अनुभव करता, जो दुख हरता।हम अगर किसी का धन बाँटें, दुख पाएँगेहम कष्ट किसी के बाँटे, मन को सुख होगा,सुख के बाँटे सुख मिलता, दुख के बाँटे दुखयह नियम प्रकृति का अटल, न कभी विमुख होगा।

सपने में रंग गई कान्हा के रंग''
सपने में रंग गई कान्हा के रंगतन में तरंग उठें, उर में उमंग सखिसपने में रंग गई कान्हा के रंग सखीनयनों की वर्षा से भीगी मैं सारीनेह पिचकारी कान्हा बार-बार मारीतन के तार झनझनाएँ, नाचे अंग-अंग सखिसपने में रंग गई कान्हा के रंग सखीफागुन के गुन बतलाऊँ कैसे मैं आलीअँखियों मे रंग नया, अधरों पे लालीबिन छुए गुलाल लाल, गाल गए रंग सखिसपने में रंग गई कान्हा के रंग सखीऐसा है रंग सखि धोऊँ न छूटेरातें सुहानी लगें दिन भी अनूठेबौराए मन मोरा बिना पिए ही भंग सखिसपने में रंग गई कान्हा के रंग सखी..

लहरलहराते सागर के आँगन मेंझूमता सावन का यह मीतदक्षिण के क्षितिज से उठतेतरंगों से निकलता संगीत।चट्टानों से टकरातेउठते-गिरते, फिर उठकर खो जातेकभी मुझको खींचते तो कभी धक्के दे जातेकर रहा कोई आज हलचल।लहरों का यों गर्जना कर आनाआकर स्पर्श करना और फिर चले जानाकभी भयाक्रांत छवि दिखलाना तो कभीहारे सैनिक की भाँति लौट जाना।ऊपर भास्कर का मंद-मंद मुस्कानाऔर तभी चाँद का, शरमा कर यों चले जानाकोमल ह्रदय में स्पंदन कर देताकोई आलोक काव्य शृंखला का।

मृदंगों का नाद''
उस स्वप्न की ओरजहाँ शीतल जल के दर्पण मेंमेघों का आलिंगन होबहती धारा की कल-कल ध्वनि मेंमाधुर्यता का पदार्पण होप्रकृति के प्रेम रस मेंसुधा संगीत का गूँज होवायु का लतिका पर स्पर्शमृदुल झंकार कर रहा होघटाओं का यों आना भीसहस्त्रों मृदंगों का नाद करेआकाश की बूँद गिर करअमृत को भी गौण कर देऐसे वातावरण में मेरा विरागचित्त चकोर को ढूँढेंमुझे ऐ मेरे मन तू ले चलउस स्वप्न की ओर।

दीप सी मैं''
धूप सा तन दीप सी मैं! उड़ रहा नित एक सौरभ-धूम-लेखा में बिखर तन,खो रहा निज को अथक आलोक-साँसों में पिघल मनअश्रु से गीला सृजन-पल,औ' विसर्जन पुलक-उज्ज्वल,आ रही अविराम मिट मिटस्वजन ओर समीप सी मैं!सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाये,रश्मि विद्युत ले प्रलय-रथ पर भले तुम श्रांत आये,पंथ में मृदु स्वेद-कण चुन,छाँह से भर प्राण उन्मन,तम-जलधि में नेह का मोतीरचूँगी सीप सी मैं!धूप-सा तन दीप सी मैं!

समुद्र की लहरेंकितने जोश मेंकितने वेग सेचली आतीं हैंइतराती, मंडरातीकिनारे की ओर।और रह जातीं हैंअपना सर फोड़करकिनारे की चट्टानों पर।लहर ख़त्म हो जाती हैरह जाता है-पानी का बुलबुलाथोड़ा-सा झाग।लहरें निराश नहीं होतींहार नहीं मानतीं।चली आती हैंबार-बार, निरंतर, लगातारएक के पीछे एक।एक दिन सफल होती हैंतोड़कर रख देती हैंभारी भरकम चट्टान कोपर फिर भी शांत नहीं होतींआराम नहीं करतीं।इनका क्रम चलाता रहता है।चट्टान के छोटे-छोटे टुकड़े कर चूर कर देतीं हैं-उनका हौसला, उनके निशान।बना कर रख देतीं हैंरेतएक बारीक महीन रेतसमुद्र तट पर फैलीएक बारीक महीन रेत।

हो गया है प्राण-कोकिल''
हो गया है प्राण-कोकिलहो गया है प्राण-कोकिलदेह-वासंती हुई।द्वार पर मंगल कलश हैआँगना-रांगोलिकाहाथ-मेंहदीपाँव-जावकरत प्रतीक्षा गोपिकाहंस-पाती बाँचती-सीपुलक-दमयंती हुई।यों हवा छूकर चलीसंकेत में कुछ कह गईफूटकर रस निर्झरी-सीछल-छलाकर बह गईकान में फिर सप्तस्वरबजने लगे,घुलने लगेआवरण सारे सहजहटने लगेखुलने लगेपर न फूटा मौनऐसी बात लजवंती हुईऔर,तुम आएमलय कीशांत शीतल गंध सेप्राण में गहरे उतरतेराग रंजित छंद सेलय-विलयहोते गए हमद्वैत से अद्वैत मेंस्वर्ग अपने रच लिए थेपत्थरों मेंरेत मेंभोर-रूपासाँझ-सोनारात-मधुवंती हुई।

समर्पण''
घनघोर शुष्क सन्नाटे कोसौंपती हूँअपनी मर्मभेदी आवाज़ें।इंद्रधनुष को एक औरआसमानी, संवेदी रंग।जीवन को सौंपती हूँअधूरी मंत्रणाओं की परिक्रमा।संवेदनाओं कोआँखों की तरलता।अभिलाषाओं को समर्पित हैप्राण-प्रतिष्ठित मंत्र।लगातार गाढ़े होते दुखको अतुलनीय मुस्कान।कविता को सौंपती हूँअब तक कमाए भावों की भाप।प्रेम को सौंपती हूँअपना संचित दर्शन।थकी हुई पगडंडियों कोलौटते पाँवों का आश्वासन।सरसराती हवाओं कोनिश्चयों की खुशबू।मौत को अब तक बचा कर रखीधवल प्रकाशित आत्मा।भूत, भविष्य, वर्तमान,सभी को समर्पित हैं मेरे ये भाव-पुंज।

दर्द मेरे द्वार पर दस्तक निरंतर दे रहे हैंइसलिए मैं गीत की संभावना को जी रही हूँ।गीत का यह कोश सदियों सेकभी खाली नहीं था।यह चमन ऐसा कि इसकोदेखने माली नहीं था।यह मुझे ज़िंदगी के मोड़ पर जब-जब मिला हैमैं इसे देने उमर शुभकामना को जी रही हूँ।दर्द इसने इस तरह बांटे किमैं हारी नहीं हूँ।आंसुओं से एक पल को भीयहाँ न्यारी नहीं हूँ।हारना मेरी नियति है, जीतना मेरा कठिन हैयह समझना भूल, मैं उदभावना को जी रही हूँ।बहुत कुछ मुझको यहाँ मांगेबिना ही मिल गया है।एक शतदल मन-सरोवर मेंअचानक खिल गया है।जो समीक्षक ढूंढ़ते हैं, छंद में गुण दोष मेरेमैं उन्हीं की दी हुई आलोचना को जी रही हूँ।

तुम डगर की धूल हो, सुनना भला लगता नहीं हैएक दिन माथे चढ़ाकर मैं इसे चंदन करूंगी।मंदिरों में आजकल मेलेबहुत जुड़ने लगे हैं।किंतु भीतर के विहग दलबिन कहे उड़ने लगे हैं।तुम बनो अब गीत या गीता कि सब स्वीकार होगासुन सकोगे तुम, इसे जब मीत मैं वंदन करूंगीबीहड़ों में हाँफती यहजिंद़गी पल-पल थकी है।कामना मेरी अभी तकपूर्ण भी ना हो सकी है।अश्रु बन झरती रही, मैं रेत के सुनसान तट परकिंतु, मैं मधुगान से यह गांव वृंदावन करूंगी।भोर की हर किरण को मैंबांध लेना चाहती हूँ।तिमिर की सारी दिशाएंलांघ लेना चाहती हूँ।बहुत दिन तक मौन रहकर फिर कहीं जो खो गया थाआज उस स्वर को तुम्हारे द्वार पर गंुजन करूंगी।बहुत दिन से कर न पाईमैं व्यथा पर मंत्रणाएं।इसलिए मन आंधियों केबीच सहता यंत्रणाएं।प्रश्न पर हर प्रश्न अब करने लगे हैं सांतिये भीतुम अगर उत्तर बनो तो सजल अभिनंदन करूंगी।

एक परिचित जो यहाँ पिछले जनम में खो गया थाइस जनम में वह मिला उसकी कहानी लिख रही हूँ।वह समंदर की कथाओं सारहा अब तक अधूरा।गीत है जिसको न कर पाईसमय के साथ पूरा।यह बहुत व्याकुल कि उसका कंठ सूखा जा रहाइसलिए बनकर नदी मैं मीत, पानी लिख रही हूँ।मोतियों-सा वह बिखरता हैकभी जैसे कि पारा।वह किसी जलयान का है मीतया कोई किनारा।वह मुझे जिस हाट में यूं ही अचानक मिल गया थाकागज़ों पर भेट के क्षण की निशानी लिख रही हूँ।द्वन्द्व से संवेदना की रोज़वह करता सगाई।वह स्वयं को दे रहा हैइस तरह नूतन बधाई।अनवरत चलते हुए या सीढ़ियां चढ़ते हुए भीमैं उसी के नाम पर सारी रवानी लिख रही हूँ।एक मीठे दर्द-सा कुछइस तरह भाने लगा है।वह हृदय की गूंज थाअब ओंठ पर आने लगा है।वह अकिंचन किंतु, उसके दान की शैली अलग हैइसलिए अपने सृजन की राजधानी लिख रही हूँ।

दर्पण है सरिता''
जिस दिन से वह ललित छंद उतरा मुंडेर परआंखों की सरिता जैसे दर्पण लगती है।अंग-अंग जो सिहरन थीअब मंद हो गई।अनचाहे ये कलियांबाजूबंद हो गई।लगता है अब गीत-विहग उतरेगा द्वारेआज अचानक तेज़ बहुत धड़कन लगती है।पीकर सारी गंधमचलना या गदराना।उतर गया हो जैसेमथुरा में बरसाना।कल तक जिसका परस मुझे कंपित करता थाआज वही मूरत मुझको सिरजन लगती है।हरी दूब पर पांवरखे तो बिखरे मोती।बहुत असंभव सुखदसंपदा कैसे खोती।अनायास ही जो प्रतिमा घर तक आ जाएउसे देख जीवन-धारा अर्पण लगती है।भोर वसंती हो या होसंध्या मदमाती।भेज रही है बिना पते कीलिख-लिख पाती।कल तक जिसका मौन मुझे पीड़ा देता थाआज वही नदिया मुझको गुंजन लगती है।

रश्मि पत्रों पर शपथ ले मैं यही कह रही हूँ''
रश्मि पत्रों पर शपथ ले मैं यही कह रही हूँचाहते हो लो परीक्षा मैं स्वयं इम्तहान हूँहूँ पवन का मस्त झोंकापर तुम्हें ना भूल पाईइसलिए यह भोर संध्यागीत बनकर मुझको गाईकंटको की राह पर चलती रही हैरान हूँक्यों मचलती हूँ समंदर के लिए हैरान हूँशून्य में कुछ खोजती हूँपर मिलन का विश्वास हैइस शहर में है सभी कुछमन में मेरे सन्यास हैआँसुओं का कोष संचित है बड़ी धनवान हूँपर नदी के साथ बहकर तृप्ति से अनजान हूँतुम रहो बादल घनेरे मैं तो सरस बरसात हूँदेख पाती जल सतह नाहँसती हुई जलजात हूँतुम भले समझो न समझो आज तक मैं मौन हूँकल चिरंतन प्रश्न का उत्तर यही पहचान हूँ...

प्रेम तुम्हारा''
सागर की हिलोरों साप्रेम तुम्हाराछू जाएतो भिगो देता हैतुम्हारे शुभ्र-शत-लक्षप्रीत-बूँदों मेंऔर क्षण भर मेंछोड़ जाता है मुझे शीत-सनी सीअपनी सभीसोन-बूँदें लेकर...

कोई क्या करेगा प्रीत का अंकन ?
कोई क्या करेगा प्रीत का अंकन मासूम हृदय का ये धड़कता स्पंदन।।शब्दों का मोहताज नहीं नयनों से होती मनुहार अपेक्षा कहाँ उपहारों की विश्वास करता सत्कारमाटी भी लगती सुरभित चंदन।।चाह कुछ नहीं प्रेम से माँगे नहीं प्रतिदानमन से मन जहाँ मिले सर्वप्रथम बलिहारी मानआत्मपटल पर भावों का मंचन।।मीरा बनी दीवानी कबीर हुआ मस्तानाप्रेम रस में भीग-भीग समर्पण का रचा अफ़सानापीतल नहीं हैं खरा कंचन।। बेबी''

आराधना''
यों ही उस धार में बहे हम भी जैसे पूजा के फूल बहते हैं,मेरे हाथों में तेरा दामन है मुझे तेरी तलाश कहते हैं।तुझ को पा कर के क्या नहीं पाया तुझ को खो कर के मैं अधूरी हूँ,तू जहाँ बाग़ है वो ज़मीन हूँ मैंतेरे होने में मैं ज़रूरी हूँ।तू मुझे प्यार दे या ना देख मुझेमेरी हर उड़ान तुझ तक है,तेरी दुनिया है मंज़िल दर मंज़िलमेरे दोनों जहान तुझ तक है।

चाहत के चिरागतुम जो खामोश रहोगे मेरे अफ़साने आ केतुम्हारी रूह से बातें करेंगे जी भर केऔर जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थेमेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।तुम जो तन्हा कभी बैठे होंगेन गम़गी़न न खुश बस यों हीमेरी यादों के तबस्सुम आ केतेरे लबों के किनारों से लिपट जाएँगे।कुछ यों हमारे प्यार का किस्सा होगामेरी चाहत तुम्हें मायूस न होने देगीऔर जो काँटें तेरी राह में बिखरे होंगेमेरे कदमों की पनाहों में सिमट आएँगे।जो अँधेरे तुम पे ढलने के लिए छाए थेमेरी चाहत के चिराग़ों से छिटक जाएँगे।

सर्वशक्तिमान''
मेरे जीवन में अचानक खुला तुम एक ऐसा पृष्ठ हो दीप!जो हजारों सोपानों! से भी अधिक मूर्तिमान है,तुम ना तो बीता कल हो, ना आने वाला कल हो,तुम सिर्फ एक सशक्त वर्तमान! मेरी आत्मा से प्रस्फ्हुटित'वैदिक रिचांवो सा पवित्र, मेरे अस्तित्व की नयी पह्चान'अपरिमारित होकर भी एक अनन्य सत्य की भांति मेरे प्राण की संजीवनी !!!सर्वशक्तिमान''......

**स्पंदन**
स्पंदन !*****उनकी यादें उनकी धड़कन उनकी खशबू उनका सिमटना उनकी खामोशी स्पंदन सी बन मेरे दिल को आगोश मै बांध मुझको धड्काती हे !*...दीप*

मौन प्रेम है''
मौन प्रेम हैएक अनोखी अनुभूतिपर्वत सा शांतस्वर्ग सा एकांतजैसे दूर कहीं जमीं पर मिलता आसमानफूलों सा मुस्कुराता भौरों सा गुनगुनाताजैसे कोई अबोध बालक हो घबरातानदी सा चंचल,जैसे चुपके से मुझे कोई बुलाता हैमेरे भी मन में तुम्हारे प्रति सबसे छुपा-साजैसे अटूट बंधन-साएक अनोखी अनुभूति सामौन प्रेम है ।

तुम्हारा स्पर्श ''
शून्य-नेत्रों से गिरी बूँदरश्मि-स्रोतों से प्रथम साक्षात्कारदीर्घ-साधना की अनन्य उपलब्धि तुम्हारा स्पर्श आत्म का स्फुरण विशुद्धचेतना-कंठ में कम्पित प्रार्थना-स्वरअचेतस को तत्क्षण चेतस-बुद्धि।तुम्हारा स्पर्श पुष्प-कलि के विकसन का आमोदस्थैर्य को निरन्तरता का सूत्रआनन्द की विभोरता का लघु-प्रहसनतुम्हारा स्पर्श रूठेपन का मधु-स्मित-अनुरोधसहज भाव-नर्तन का चित्र-विचित्र'मैं'-'तुम' विलयन का सहज संचरण।

हम नए हैंनए थे भीनए आगे भी रहेंगेयह हमारा गीत होनासुनो समयातीत होना हैबन सदाशिवज़हर से अमृत बिलोना हैकल दहे थेदह रहे हैंकंठ आगे भी दहेंगेसूर्य के संग यात्रा मेंआज या कल नहीं होतागीत का क्षण है अजन्मावह कभी भी नहीं खोताबह रहे थेकल बहे थेजल हमेशा ही बहेंगेसत्य वह है जो रहा सुंदर हमेशावह नहीं जिसके सदा हीबीतने का अंदेशाकल कहा थाकह रहे हैंयही कल भी हम कहेंगे।

कल्पना''
देखा है मैंनेखुले आकाश के,बाँह पसारेविस्तार को।नदिया के रुख कोमचलते खेलतेबहने को।हर उषा सेआशआ की किरण कोमहसूस किया है।अपने बंद आँखों से,देख सह चुप रह करजिया है मैंने''हर दिनहर पल कों;और सराहा है उसेजिसने मुझे यह सबदेखने दीया!!!चाहे मन की आंखों के पीछे से ही...

मेरी कहानी ''
मेरी कहानी तुम नहीं आओगे,तुम नहीं सुनोगे,ये कहानी जो मैंने लिखी हैपानी की सतह पर,लहरों की चपलता पर,ढलते सूरज की सुनहरी धूप पर,भुल से कभी जो किनारे पर आओऔर मेरी आँखों का समुंदर देखो,और उसमें दूर तक क्षितिज को ढूँढ़ो,तो रेत में दबे शंख को निकाल लेना,उसमें जब लहरों का शोर सुनोगे,तो मेरी कहानी तुम तकअथाह अनंत से बहती हुईसृष्टी के हर कण में मिल जाएगी।

कितना सुखद अहसास है ''
कितना सुखद अहसास है '' कोई हर पल- हर घड़ी मेरे साथ है। कभी हँसाता है, कभी रूलाता है और कभी --- आनन्द के उस समुन्द्र में धकेल देता है, जहाँ------ अनुभूति की ख़ुमारी है बड़ी लाचारी है। मैं बच्ची बन चहकने लगती हूँ। खुद से ही, बहकने लगती हूँ। अपनी इस दशा को कब तक छिपाऊँ ? और किसको अपना हाल बताऊँ ? अपनी उस अनुभूति के लिए शब्द कहाँ से लाऊँ ? किसी को क्या और कैसे बताऊँ ? ये तो अहसास है। जो कहा नहीं जा सकता समझ सकते हो तो समझ जाओ। नूर की इस बूँद को मौन हो पी जाओ।

कल्पना''
कल्पना ईश्वर की दी हुई एक अद्भुत शक्ति हैजिससे एक अंधादुनिया की खूबसूरती देख सकता हैगूंगा मधुर गीत गा सकता हैबहरा सरगम के सुर सुन सकता हैघर बैठा इंसान दुनिया की सैर कर सकता हैकल्पना ले जाती है हमें सागर की गहराई मेंकभी ऊँचे आसमान मेंकभी पहाड़ों में, कभी घाटियों मेंकभी झील तो कभी नदी के किनारे यह प्रेरित करती हैकवि को कविताएँ लिखने के लिएचित्रकार को चित्र बनाने के लिएमूर्तिकार को मूर्ति बनाने के लिएसंगीतकार कोई नई धुन बनाने के लिएइसका हाथ थामे हम चाँद पेपहुँच गए तो क्या हमउस तक नही पहुँच सकतेजिसने हमें यह शक्ति दी है''


ईश्वर''
मैं असुरक्षित नही हूँ कदाचित'मेरे शरीर की करोड़ों कोशिकाओं मेंस्पंदित होता है,सृष्टि के अणु-अणु का प्राण तत्वबहती हैं पसीने कीहज़ारों नदियाँ....दिमाग के कोश खंडों मेंसंरक्षित है दुनिया के लियेमंगलकारी सूक्तियाँ'मेरी भुजावों में.....कुछ भी कर गुजरने की है क्षमताऔर पाँवों में दुर्गम रास्तों कोरौंदने की असीम शक्तिइसलिये मैं असुरक्षित नहीं हूँ जरा भीमेरे रोम-रोम में धड़कता हैईश्वर हीईश्वर कभी नही होता असुरक्षितवह देता है सुरक्षापराजित भावनाओंऔर दुर्बल संभावनाओं को...बेबी''
प्रेम की पावन धारा है,प्रेम दीपक मन मन्दिर का।आत्मा का उजियारा है,प्रेम की पावन धारा है।प्रेम से हृदय स्वच्छ होता है,प्रेम है पाप कलुष धोता है।प्रेम संबल है जीवन का,प्रेम ने विश्व सँवारा है।प्रेम की पावन धारा है।प्रेम उन्नति का साधन है,प्रेम का हर क्षण पावन है।प्रेम के बिना दिव्य जीवन,सिंधु जल जैसा खारा है।प्रेम की पावन धारा है।प्रेम, यह जग की भाषा है,प्रेम, सबकी अभिलाषा है।प्रेम ने पातक धोए है,धरा पर स्वर्ग उतारा है।प्रेम की पावन धारा है। बेबी''
(Nature) प्रकृति इश्वर की अद्भुत और अनुपम कृति है. सुख-दुःख , प्यार , करुना , राग-विराग, ईर्ष्या-द्वेष , आसक्ति-विरक्ति...एक साथ लेकर चलने वाली अपनी सीमाओं मे रहते हुए,असीम है वो, असीम से साक्षात्कार कराती है , अनुभव और अभिव्यक्ति को मार्ग देती है...प्रकृति और पुरुष ही मनुष्य की उत्पति का और निवृति का भी कारण है.... परम पुरुष परमेश्वर की भृकुटी मात्र पर प्रकृती नृत्य करती है.....ॐ''

Wednesday, September 16, 2009

प्रेम ही सत्यम, प्रेम शिवम है, प्रेम ही सुंदरतम होगाप्रेम डगर पर चलते रहना जहाँ न लुटने का ग़म होगा।मदमाती पलकों की छाया, मिल जाए यदि तनिक पथिक कोतिमिर, शूल से भरा मार्ग भी आलोकित आनंद-सम होगा।डगर प्रेम की, आस प्रणय की, उद्वेलित हों भाव हृदय केअंतर ज्योति की लौ में जल कर नष्ट निराशा का तम होगा।बिछड़ गया क्यों साथ प्रिय का, सिहर उठा पौरुष अंतर काजीर्ण वेदना रही सिसकती, प्यार में न कोई बंधन होगा।अकथ कहानी सजल नयन में लिए सोचता पथिक राह मेंदूर क्षितिज के पार कहीं पर, एक अनोखा संगम होगा।निशा विरह को निगल जाएगी, भोर लिए संदेश मिलन काउत्तंग तरंगों पर किरणों का, झूम-झूम कर नर्तन होगा।