Thursday, September 17, 2009


दर्पण है सरिता''
जिस दिन से वह ललित छंद उतरा मुंडेर परआंखों की सरिता जैसे दर्पण लगती है।अंग-अंग जो सिहरन थीअब मंद हो गई।अनचाहे ये कलियांबाजूबंद हो गई।लगता है अब गीत-विहग उतरेगा द्वारेआज अचानक तेज़ बहुत धड़कन लगती है।पीकर सारी गंधमचलना या गदराना।उतर गया हो जैसेमथुरा में बरसाना।कल तक जिसका परस मुझे कंपित करता थाआज वही मूरत मुझको सिरजन लगती है।हरी दूब पर पांवरखे तो बिखरे मोती।बहुत असंभव सुखदसंपदा कैसे खोती।अनायास ही जो प्रतिमा घर तक आ जाएउसे देख जीवन-धारा अर्पण लगती है।भोर वसंती हो या होसंध्या मदमाती।भेज रही है बिना पते कीलिख-लिख पाती।कल तक जिसका मौन मुझे पीड़ा देता थाआज वही नदिया मुझको गुंजन लगती है।

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