तुम डगर की धूल हो, सुनना भला लगता नहीं हैएक दिन माथे चढ़ाकर मैं इसे चंदन करूंगी।मंदिरों में आजकल मेलेबहुत जुड़ने लगे हैं।किंतु भीतर के विहग दलबिन कहे उड़ने लगे हैं।तुम बनो अब गीत या गीता कि सब स्वीकार होगासुन सकोगे तुम, इसे जब मीत मैं वंदन करूंगीबीहड़ों में हाँफती यहजिंद़गी पल-पल थकी है।कामना मेरी अभी तकपूर्ण भी ना हो सकी है।अश्रु बन झरती रही, मैं रेत के सुनसान तट परकिंतु, मैं मधुगान से यह गांव वृंदावन करूंगी।भोर की हर किरण को मैंबांध लेना चाहती हूँ।तिमिर की सारी दिशाएंलांघ लेना चाहती हूँ।बहुत दिन तक मौन रहकर फिर कहीं जो खो गया थाआज उस स्वर को तुम्हारे द्वार पर गंुजन करूंगी।बहुत दिन से कर न पाईमैं व्यथा पर मंत्रणाएं।इसलिए मन आंधियों केबीच सहता यंत्रणाएं।प्रश्न पर हर प्रश्न अब करने लगे हैं सांतिये भीतुम अगर उत्तर बनो तो सजल अभिनंदन करूंगी।
Thursday, September 17, 2009
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