Sunday, September 20, 2009


इन बहारों से कोई, पूछे ये जाते हैं कहाँ।रहते हैं किस ठौर, जब होते नहीं इनके निशाँ।तितलियाँ उड़-उड़ बतातीं, फूल को खिलने का ढंग।भ्रमर उसके उर में भरता, तान देकर सूर्ख़ रंग।नई-नई कोपलों से, ढँक लिया तरु तन-बदन।पवन बाँटे गंध मादक, प्रकृति करती सबको दंग।कौन आकर कान में, कह जाता बहारों से मिलो हैं क्षणिक, पर कितने रंगों से भरे इनके रवाँ। रहते हैं किस ठौर. . .पत्थरों से आज पूछो, क्या नदी से उनका रिश्ता।साथ उठकर चल दिए, बन सलिल का एक हिस्सा।बिखर जाएँगें तटों पर, बालुका-सा ढेर बनकरजड रहे जडवत बनें, मत करें चेतन का पीछा।बात दुनियावी समझ में, क्यों नहीं आती सभी को छोटी-छोटी ज़िंदगी, पर घात सदियों के यहाँ। रहते हैं किस ठौर,,बेबी''

No comments:

Post a Comment