दर्द मेरे द्वार पर दस्तक निरंतर दे रहे हैंइसलिए मैं गीत की संभावना को जी रही हूँ।गीत का यह कोश सदियों सेकभी खाली नहीं था।यह चमन ऐसा कि इसकोदेखने माली नहीं था।यह मुझे ज़िंदगी के मोड़ पर जब-जब मिला हैमैं इसे देने उमर शुभकामना को जी रही हूँ।दर्द इसने इस तरह बांटे किमैं हारी नहीं हूँ।आंसुओं से एक पल को भीयहाँ न्यारी नहीं हूँ।हारना मेरी नियति है, जीतना मेरा कठिन हैयह समझना भूल, मैं उदभावना को जी रही हूँ।बहुत कुछ मुझको यहाँ मांगेबिना ही मिल गया है।एक शतदल मन-सरोवर मेंअचानक खिल गया है।जो समीक्षक ढूंढ़ते हैं, छंद में गुण दोष मेरेमैं उन्हीं की दी हुई आलोचना को जी रही हूँ।
Thursday, September 17, 2009
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