Thursday, September 17, 2009


जो कष्ट दूसरे के हैं ओढ़ लिया करते''
जो कष्ट दूसरे के हैं ओढ़ लिया करतेवह कष्ट नहीं होता, आनन्द कहलाता है,कहने वाले कहते, वह पीड़ा भुगत रहाउस पीड़ा में भी वह मिठास ही पाता है।हम व्यक्ति राष्ट्र या फिर समाज के दुख बाँटे,अनुभूति नहीं फिर दुख की कोई भी करता''वह यही गर्व करता, मैं नहीं अकेली हूँ ...वह तो सुख का अनुभव करता, जो दुख हरता।हम अगर किसी का धन बाँटें, दुख पाएँगेहम कष्ट किसी के बाँटे, मन को सुख होगा,सुख के बाँटे सुख मिलता, दुख के बाँटे दुखयह नियम प्रकृति का अटल, न कभी विमुख होगा।

1 comment:

  1. मनुष्य अंहकार वश समझता हे की प्रकृति उसके लिए बनी हे ,
    उसकी इन्द्रियों के लिए 'भोगः' मात्र हे प्रकृति ; जबकि ......

    प्रकृति ने खुद मै बहना सिखा हे बस ,
    एक नियम की डोर मै बंधी चल रही हे वो तो!
    धरती नदी समुद्र आकाश चंदा सूरज ......
    सब कुछ ही तो प्रकृति के अभिन्न अंग हैं ;
    और सब ही मस्त चाल मै नियम-बध चल रहे हैं !

    जिस जिस ने प्रकृति को समझ ,
    खुद को नियमों मै ढाल लिया ,
    वो वो प्रकृतिका भेद पहचाना ,
    तभी सुख-दुःख से ऊपर उठा वो !

    ......दीप!

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